WAR AGAINST HUNGER,…….. (COVID-19)

Subodh Singh wants to raise funds for WAR AGAINST HUNGER,…….. (COVID-19). Your donation has the power to help them move closer to their goal amount. Please contribute. https://www.ketto.org/fundraiser/to-serve-the-people-who-are-facing-hunger-during-pandemic?utm_source=internal&utm_medium=nativeShare&utm_campaign=to-serve-the-people-who-are-facing-hunger-during-pandemic&utm_content=1576158&shby=1

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कभी दो हमे भी मौका

कभी दो हमें भी यह मौका,
सजदे में तेरे झुक जाएं हम,
लेके हाथ तेरा हाथों में,
प्यार की चूड़ियाँ पहनाएं हम
कभी दो हमें भी यह मौका,

कभी दो हमें भी यह मौका,
ज़ुल्फों की छाँव में रहने का,
तेरे कानों में गुफ़्तगू कहने का,
कभी दो हमें भी यह मौका,

कभी दो हमें भी यह मौका,
होठों से होठ मिलाने का,
तेरी बाहों में सो जाने का,
रात में तेरे ख्वाबों में जी लेने का,
कभी दो हमें भी यह मौका,

कभी दो हमें भी यह मौका,
शाम के एहसास का,
गहरे से जज़्बात का,
आँखों में डूब जाने का,
कभी दो हमें भी यह मौका,

कभी दो हमें भी यह मौका,
नज़्म में तुझको दिल दे जाने का,
ग़ज़ल में तेरे गीत गुनगुनाने का,
सुरों की ज़िन्दगी में तेरे शामिल हो जाने का,
कभी दो हमें भी यह मौका,

कभी दो हमें भी यह मौका,
ज़िन्दगी की मुकम्मलता का,
दुल्हन बन के तुम्हारे घर आजाने का,
सुहाग की सेज पर हमको प्यार जताने का,
कभी दो हमें भी यह मौका,

कभी दो हमें भी यह मौका,
सुबह आँख खुले तो तेरे दीदार का,
बाहों में सुलगते से जिस्म का,
मांग में तेरी सिन्दूर भर देने का,
कभी दो हमें भी यह मौका,
खुदको जाता देने का,
अपना प्यार दिखने का,
कभी दो हमें भी यह मौका ।

थक गए एहसास भी

कुछ भी लिखने का मन नहीं….

ज़रूरी है कि रोज़ लिखूं और रोज़ पोस्ट करूँ….

मेरे एहसासों को भी आराम चाहिए…

हर रोज़ कलम के विमान पर हो सवार 

दुनिया की सैर को निकल जाते हैं बेचारे…

ज़र्रे ज़र्रे से जज़्बात ढूंढ कर लाते हैं….

और अल्फ़ाज़ों के मसालों से 

बना कविता ..परोसे जाते हैं पोस्ट की थाली में…

कितना थक जाते हैं मेरे ये कोमल से एहसास…

उन्हीं एहसासों को हर रोज़ नई नई रचना का लिबास पहना…

फैशन परेड करनी पड़ती है….

कभी अल्फ़ाज़ बदलते हैं …तो कभी लेखन शैली…

क्या सोचा कभी किसी ने….

एहसासों को कितना बुरा लगता होगा….

हर रोज़ हम उसके दर्द को 

अपनी मनमर्ज़ी से बयां कर डालते हैं….

आह उसकी होती है…वाह दुनिया करती है

आज मेरे एहसासों ने हड़ताल कर दी है..

राज़ी नहीं हो रहे बयां करने को ख़ुदको…

तो सोचा आज कुछ नहीं लिखता

चुप ही रहता हूँ….

कहीं नाराज़ हो गए तो फिर….

तो भई आज मैं तो चुप हूँ एकदम….

बोलूंगा नहीं…..

उनको आराम करने देता हूँ…

ठीक है ना,..

शोर मत करना ओके…..

किस्सा रफ़ कॉपी का..

हर सब्जेक्ट की कॉपी अलग अलग बनती थी, परंतु एक कॉपी ऐसी थी जो हर सब्जेक्ट संभालती थी, उसे हम रफ़ कॉपी कहते थे, यूं तो रफ़ मतलब खुरदुरा होता है, परंतु वो रफ़ कॉपी हमारे लिए बहुत कोमल थी! कोमल इस सन्दर्भ में कि उसके पहले पेज पर हमें कोई इंडेक्स नहीं बनाना होता था, न ही शपथ लेनी होती थी की इस कॉपी का एक भी पेज नहीं फाड़ेंगे, इसे साफ़ साफ़ रखेंगे! वो कॉपी पर हमारे किसी न किसी पसंदीदा व्यक्तित्व का चित्र होता था,

वो कॉपी के पहले पन्ने पर सिर्फ हमारा नाम होता था, और आखिरी पन्नों पर अजीब सी कलाकृतियां, राजा-मंत्री-चोर-सिपाही या फिर पर्ची वाले क्रिकेट का स्कोरकार्ड..उस रफ़ कॉपी में बहुत सी यादें होती थीं, जैसे अनकहा प्रेम, अनजाना सा गुस्सा, कुछ उदासी, कुछ दर्द, हमारी रफ़ कॉपी में ये सब कोड वर्ड में लिखा होताथा, जिसे डिकोड नहीं किया जा सके! उस पर अंकित कुछ शब्द, कुछ नाम, कुछ चीज़े ऐसी थीं जिन्हें मिटाया जाना हमारे लिए असंभव था, हमारे बैग में कुछ हो या न हो वो रफ़ कॉपी जरूर होती थी! आप हमारे बैग से कुछ भी ले सकते थे लेकिन रफ़ कॉपी नहीं! हर पेज पर हमने बहुत कुछ ऐसा लिखा होता था जिसे हम किसी को भी नहीं पढ़ा सकते थे, कभी कभी ये भी हुआ की उन पन्नों से हमने वो चीज़ फाड़ के दांतों तले चबा के थूक दी थीं, क्योंकि हमें वो चीज़ पसंद न आई होगी!!

समय इतना बीत गया की अब कॉपी हीं नहीं रखते हैं, रफ़ कॉपी जीवन से बहुत दूर चली गयी है, ! हालाँकि अब बैग भी नहीं रखते की रफ़ कॉपी रखी जाएँ, वो खुरदुरे पन्नों वाली रफ़ कॉपी अब मिलती ही नहीं, हिसाब भी नहीं हुआ है बहुत दिनों से, न ही प्रेम का, नही गुस्से का! यादों की भाग गुणा का समय नहीं बचता!अगर कभी वो रफ़ कॉपी मिलेगी तो उसे लेकर बैठेंगे, फिर से पुरानी चीज़ें खँगालेंगे, हिसाब करेंगे, और आखिरी के पन्नों पर राजा-मंत्री-चोर-सिपाही खेलेंगे!

वो नटराज की पेन्सिल, वो चेलपार्क की स्याही..

वो महँगी पाइलेट पैन और जैल पैन की लिखाई…

वो सारी ड्रॉयिंग्स वो पहाड़, वो नदी, वो झरने वो फूल..

लिखते लिखते ना जाने कब ख़त्म हुआ स्कूल…

अब तो बस साइन करने के लिए उठती है कलम..

टाइप करके घिस रहे उंगलियाँ, जाने कब लगेगा मल्हम…

पर आज ना जाने क्यूँ नोटबुक का वो लास्ट पेज याद आ गया..

जैसे उस काट पीट में छिपा कोई राज़ हो टकरा गया…

जीवन में शायद कहीं हो कुछ कम सा गया है..

पलकें भीगी सी हैं कुछ नम सा गया है..

आज फिर वक़्त शायद कुछ थम सा गया है ।।

क्या आप को याद है आप की वो रफ कॉपी ?

क्या लिखूं

कुछ समझ नहीं आता क्या लिखूं
तुझे अपना लिखू या कोई सपना लिखूँ
बिखरे थे जो चेहरे पे वो भाव मेरे लिए
उसे अपने लिए लिखूँ या तेरी आदत।
लिया था हाथो में मेरा चेहरा कभी
उस लमहोंको अपना कहूँ या सपना कहूँ
वो उड़ान जो कभी भरी थी तेरे
आसमां और चाँद को छू लिया था उसको अपना कहू
या सपना कहूँ
वो वादे जो ना मैंने किये न तुमने
किये
उन वादों के पन्नो में जो बिखरी है यादें
उनको बसा लिया है जिसने
उस दिल को क्या लिखूं
कुछ समझ नहीं आता क्या लिखूँ
तुझे अपना लिखूँ या सपना लिखूँ

एक कविता मेरी भी…. 

बड़े बड़े शहरों की

छोटी छोटी गलियों में

ऊँचे ऊँचे महलों के साये में

कहीं गरीबी भी पलती है

बड़ी बड़ी इमारतों के नीचे

गरीब की झोंपड़ी में

भूख सोती है

अमीरों का जश्न जब गरीबों के

आँसुओं पर मनाया जाता है

उन छलकते जामों में 

कहीं गरीब का खून सिसकता है

रोती कराहती गरीबी चीख पड़ती है

और एक गरीब की अर्थी पर दया का कफ़न पड़ता है

चिता की आग पर उधार का पानी सर चढता है

बेटी की इज़्ज़त बाज़ार में आँसू बहाती है

बेवा की चीखें ऊँचे महलों से उठते ठहाकों में 

दब जाती है.

एक कविता अधूरी सी 

​मैं हूँ एक कविता जो सुनी जाने की हसरत लिये बैठी है,

एक चीज़ हूँ ठुकरायी हुई जो चुनी जाने की हसरत लिये बैठी है

हूँ एक नगमा जिसे आवाज़ की चादर ने लपेटा नही है,

एक गीत जो अब तक संगीत की शय्या पे लेटा नही है
या शायद एक एहसास जो महसूस होना चाहे है,

तलाश हूँ कुछ ऐसी जिसमे बन्द ये निगाहें है

एक उड़ान जिसे ख्वाबो की उँचायी हासिल है पर पर नही,

तेरे हाथो किया कत्ल जिसका इल्ज़ाम तेरे सर नही
एक विद्रोह मगर दबा हुआ सा,तूफ़ान एक थमा हुया सा,

साँस है मगर ज़िन्दगी कहाँ है, रगो में खून मगर जमा हुआ सा

एक कहानी जिसे अंजाम मिला पर मंज़िल नही मिली,

एक सफ़र जिसे मुकाम मिला पर मन्ज़िल नही मिली
एक धोका,एक छलावा ये जीवन मेरा

पर मेरा पल पल मरना साँचा है,

और नही कुछ हक़ीक़त मेरे होने की

दर्द में लिपटा एक हाँड़-माँस का ढ़ाँचा है
तुम चाहो तो मेरे दर्द की हदे तय कर लो,

दीवारे चार गिरा दो, सरहदे तय कर लो,

मगर इस तकलीफ़ की नही सीमा कोई

मेरी बोझिल सी आँखें अब भी देख रही है

खुद में अद्रिश्य सी गरिमा कोई
वो कहानी,वो सफ़र मंज़िल भी पायेंगे कभी,

मेरे विद्रोह के तूफ़ान सभी समाज की दीवारो से टकरायेंगे कभी,

मेरी उड़ान साक्शी बनेगी मन वाँछित उँचायी की,

सच्चे इल्ज़ाम,सच्चा इन्साफ़पैगाम लायेंगे सच्चायी की

अजनबी सा एहसास वो सबो के अन्तर्मन से परिचय बनायेगा,

नज़रें देखेंगी मकसद तलाश सार्थक हो पायेगा,

मेरे नगमे और गीत ये कल आवाज़ पायेंगे,

ठुकराये गये है जो आज, कल इकरार-ए-अन्दाज़ पायेंगे,
कितना भी विचलित हो मन

समझाना खुद को ज़रूरी है,

इसलिये मेरी कोशिश जारी है

मेरी कविता अभी अधूरी है

मेरा हमसाया मेरा दरख्त! : कुछ मेरी डायरी से

देता है तू साया हमको, कभी हमारा हमराज़ होता है!

कभी हमारे हाथ के खंजर के लिए, तू तख्ती का काम करता है!!

होता हूँ जब परेशां तो तेरी गौद में बैठ जाता हूँ मैं!

और कभी माँ से छुपने में तू मददगार होता है!!

मैं देता हूँ तुझे ज़ख्म जब अपनी मुहब्बत का इजहार करता हूँ!

हाथ में लेकर खंजर महबूबा का नाम लिखता हूँ!

मगर तू फिर भी मेरा दोस्त बनकर!

अपने उस ज़ख्म में उभार देता है!! 

होती है जब ज़रूरत उनके घर में झांकने की!
तू मेरे लिए सीढ़ी का काम करता है!!

और जब सामने आजाते हैं उनके अब्बा!

तो तू डाली झुकाकर उनका रस्ता थाम लेता है!!

होता जब कोई उदासी का सा आलम!
तू अपने साए में सुलाकर मुझे सकूं देता है!!

और जब नाराज़ होता हूँ में किसी बात पर!

तू अपनी ठंडी हवाओं से मुझे नरमी देता है!!

तूने देखी है मेरी वो पहली मासूम सी मुहब्बत भी!
तुने ही देखी हर वो बात जो मैं माँ से कह नही सकता!!

मेरे हर एक राज़ का राज़दार है तू!

फिर क्यों मैं तुझे माँ कह नही सकता!!

बेशक है तू एक दरख्त !
बेजान कहते हैं लोग तुझे!!

लेकिन मैं जानता हूँ!

तू बेजान हो नही सकता!!

कोलकाता “एक शाम” 

कौन-सी शाम? नशे के इंजेक्शन लगाकर फुटपाथ पर लुढ़की शाम, शैम्पेन की बाहों में थिरकती पाँच सितारा शाम, विक्टोरिया के ईद-गिर्द धुँधलके में चोंच लड़ाती गलबहियाँ डोलती युवा सपनों की शाम, हाथ या पैर से रिक्शा खींचती शाम, चिपचिपाती पसीना टपकाती शाम, क्लबों स्वीमिंगपूलों की शाम, साहित्य, संगीत, चित्र, नाटक, फ़िल्म की सर्जनात्मक शाम, फ़ुटपाथों पर ख़रीदारी के लिए टूट पड़ती शाम, वातानुकूलित बाज़ारों में इठलाती, ठगाती शाम, उस अधपगले अधेड़ की शाम जो जाने किस ज़माने से बांग्ला गीत गाता हुआ नंदन परिसर के चक्कर लगाता अपनी जवानी क़ुर्बान कर चुका है। दुर्गा उत्सव, पुस्तक मेला की भीड़ भरी शाम, यह शाम-वह शाम या इनसे अलग कोई शाम। कोलकाता की शाम बहुवचनी है।

अगर कहूँ कि कोलकाता का पार्श्व-राग शाम है तो ग़लत नहीं होगा। अगर शाम एक इत्मीनान है तो कोलकाता में हर कुछ इत्मीनान से होता है। शहर इत्मीनान से जागेगा, दुकान इत्मीनान से खुलेंगी। लोग दफ्तर में आराम से जाएँगे, आराम से चलेंगे ‘शब्द’ नहीं ‘गल्प’ बोलेंगे। बांग्ला में कुछ कहने को ‘कोथा’ शायद इसीलिए कहते हैं। आज की हड़बड़ी नहीं, जो कुछ होगा ‘कल होगा’ – ‘काल होबे’। अगर ज़्यादा जिद करेंगे तो टका-सा जवाब पाएँगे, ‘ना होबे’।
शाम अर्धनारी और अर्धपुरुष है, कोलकाता भी अर्धनारीश्वर महानगर है एक अंग से कम्यूनिज़्म का तांडव है तो दूसरे से दुर्गा उत्सव, रवींद्र संगीत का लास्य-टू-इन-वन। हैरत इस बात की है कि काल जहाँ इतनी धीमी गति से चलता है वहाँ के वासी गर्व से कहते हैं कलकत्ता जो आज सोचता है वह पूरा भारत कल सोचता है। ‘भीषण सुंदर’ या ‘दारुण सुंदर’ जैसे बांग्ला के विरोधाभासी शब्द युग्म विरोधों के सामंजस्य के प्रतीक है या विपरीतों के मिलनोत्कर्ष के? तभी तो ‘वर्ग संघर्ष’ के ‘भीषण’ के साथ अमीरी का ‘सुंदर’ मज़े में मिल कर रहता है। मुझे नहीं लगता कि सुरुचि, सौंदर्य, कोमलता, दर्शन, भक्ति, कल्पना, प्रेम, करुणा, उदासी जैसी भाव-राशि को कोलकाता ने वैज्ञानिक यथार्थवाद के दुर्द्धर्ष काल में भी कभी त्यागा होगा। शरद और रवींद्र कभी उसके जीवन से परे धकेले न जा सके। रवींद्र और नजरूल या सुभाष और राम कृष्ण की पूजा कोलकाता एक ही झाँकी में बराबर से कर सकता है। यही उसकी समाई है, तभी तो कोलकाता पूरे भारत का कोलाज बना हुआ है।