एक कविता मेरी भी…. 

बड़े बड़े शहरों की

छोटी छोटी गलियों में

ऊँचे ऊँचे महलों के साये में

कहीं गरीबी भी पलती है

बड़ी बड़ी इमारतों के नीचे

गरीब की झोंपड़ी में

भूख सोती है

अमीरों का जश्न जब गरीबों के

आँसुओं पर मनाया जाता है

उन छलकते जामों में 

कहीं गरीब का खून सिसकता है

रोती कराहती गरीबी चीख पड़ती है

और एक गरीब की अर्थी पर दया का कफ़न पड़ता है

चिता की आग पर उधार का पानी सर चढता है

बेटी की इज़्ज़त बाज़ार में आँसू बहाती है

बेवा की चीखें ऊँचे महलों से उठते ठहाकों में 

दब जाती है.

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writersonu

I am just an open book. Just look into my eyes and you will get to know everything about me.

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