कौन-सी शाम? नशे के इंजेक्शन लगाकर फुटपाथ पर लुढ़की शाम, शैम्पेन की बाहों में थिरकती पाँच सितारा शाम, विक्टोरिया के ईद-गिर्द धुँधलके में चोंच लड़ाती गलबहियाँ डोलती युवा सपनों की शाम, हाथ या पैर से रिक्शा खींचती शाम, चिपचिपाती पसीना टपकाती शाम, क्लबों स्वीमिंगपूलों की शाम, साहित्य, संगीत, चित्र, नाटक, फ़िल्म की सर्जनात्मक शाम, फ़ुटपाथों पर ख़रीदारी के लिए टूट पड़ती शाम, वातानुकूलित बाज़ारों में इठलाती, ठगाती शाम, उस अधपगले अधेड़ की शाम जो जाने किस ज़माने से बांग्ला गीत गाता हुआ नंदन परिसर के चक्कर लगाता अपनी जवानी क़ुर्बान कर चुका है। दुर्गा उत्सव, पुस्तक मेला की भीड़ भरी शाम, यह शाम-वह शाम या इनसे अलग कोई शाम। कोलकाता की शाम बहुवचनी है।
अगर कहूँ कि कोलकाता का पार्श्व-राग शाम है तो ग़लत नहीं होगा। अगर शाम एक इत्मीनान है तो कोलकाता में हर कुछ इत्मीनान से होता है। शहर इत्मीनान से जागेगा, दुकान इत्मीनान से खुलेंगी। लोग दफ्तर में आराम से जाएँगे, आराम से चलेंगे ‘शब्द’ नहीं ‘गल्प’ बोलेंगे। बांग्ला में कुछ कहने को ‘कोथा’ शायद इसीलिए कहते हैं। आज की हड़बड़ी नहीं, जो कुछ होगा ‘कल होगा’ – ‘काल होबे’। अगर ज़्यादा जिद करेंगे तो टका-सा जवाब पाएँगे, ‘ना होबे’।
शाम अर्धनारी और अर्धपुरुष है, कोलकाता भी अर्धनारीश्वर महानगर है एक अंग से कम्यूनिज़्म का तांडव है तो दूसरे से दुर्गा उत्सव, रवींद्र संगीत का लास्य-टू-इन-वन। हैरत इस बात की है कि काल जहाँ इतनी धीमी गति से चलता है वहाँ के वासी गर्व से कहते हैं कलकत्ता जो आज सोचता है वह पूरा भारत कल सोचता है। ‘भीषण सुंदर’ या ‘दारुण सुंदर’ जैसे बांग्ला के विरोधाभासी शब्द युग्म विरोधों के सामंजस्य के प्रतीक है या विपरीतों के मिलनोत्कर्ष के? तभी तो ‘वर्ग संघर्ष’ के ‘भीषण’ के साथ अमीरी का ‘सुंदर’ मज़े में मिल कर रहता है। मुझे नहीं लगता कि सुरुचि, सौंदर्य, कोमलता, दर्शन, भक्ति, कल्पना, प्रेम, करुणा, उदासी जैसी भाव-राशि को कोलकाता ने वैज्ञानिक यथार्थवाद के दुर्द्धर्ष काल में भी कभी त्यागा होगा। शरद और रवींद्र कभी उसके जीवन से परे धकेले न जा सके। रवींद्र और नजरूल या सुभाष और राम कृष्ण की पूजा कोलकाता एक ही झाँकी में बराबर से कर सकता है। यही उसकी समाई है, तभी तो कोलकाता पूरे भारत का कोलाज बना हुआ है।